हिंसा और अहिंसा में अन्तर

बौद्ध धर्म में हिंसा और अहिंसा दो प्रमुख सिद्धांत हैं, जिन्हें उनके अनुयायियों ने अपने जीवन और समाज के लिए महत्वपूर्ण माना है। इन दोनों के प्रति बौद्ध धर्म में विशेष ध्यान दिया जाता है और यहां आपको इन दोनों के बीच अंतर और महत्व के बारे में विस्तृत जानकारी मिलेगी।

हिंसा:

  • हिंसा का अर्थ है किसी को चोट पहुंचाना, नुकसान पहुंचाना या दुख पहुंचाना।
  • बौद्ध धर्म में हिंसा को स्वीकार्य नहीं माना जाता है। इसे दुख और पीड़ा का कारण माना जाता है और समाज में इसकी स्थिति अत्यंत निराधारित होती है।
  • बौद्ध धर्म में हिंसा की प्रतिष्ठा नहीं है और अनुयायियों को धार्मिक शास्त्रों में हिंसा से बचने का संदेश दिया गया है।

अहिंसा:

  • अहिंसा का अर्थ है दूसरों के प्रति शांतिपूर्वक व्यवहार करना, उन्हें किसी भी रूप में नुकसान न पहुंचाना।
  • बौद्ध धर्म में अहिंसा को एक महत्वपूर्ण सिद्धांत माना जाता है। अहिंसा को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और इसे अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।
  • बौद्ध धर्म के अनुयायी अहिंसा के माध्यम से ही समाज में शांति और सौहार्द्र बना रह सकता है। वे हिंसा को अनुमोदन नहीं करते और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति और सम्मान का आदर्श रखते हैं।

इस प्रकार, बौद्ध धर्म में हिंसा और अहिंसा को अलग-अलग मान्यताओं और धारणाओं के साथ देखा जाता है, जो उनके शिष्यों को सद्गुणों के माध्यम से जीवन जीने का मार्ग दिखाते हैं।

क्या अत्याचार सहना अहिंसा है?

अत्याचार सहना अहिंसा के तत्वों के खिलाफ है। अहिंसा का मतलब है दूसरों के प्रति शांतिपूर्वक व्यवहार करना और उन्हें किसी भी रूप में नुकसान न पहुंचाना। अत्याचार सहना का अर्थ होता है अनावश्यक दुख या अन्याय से गुजरना, जो कि आत्महत्या और मानसिक चिकित्सा के कारक हो सकते हैं।

अहिंसा के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को अपने और अन्यों के लिए उत्तम और सही भविष्य की ओर ले जाना चाहिए। इसका मतलब है कि अत्याचार या अन्याय को सहा नहीं जानी चाहिए, बल्कि अत्याचार रोकने के लिए साहसी और सही तरीके से कार्रवाई की जानी चाहिए।

बौद्ध धर्म में भी अत्याचार के खिलाफ खुली और सक्रिय रूप से लड़ाई की गई है, और शिष्यों को न्याय और सच्चाई की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया गया है। इसलिए, अत्याचार सहना को अहिंसा के माध्यम से स्वीकार नहीं किया जाता।