सम्यक शब्द का क्या अर्थ है?

"सम्यक" का अर्थ है "सही" या "ठीक"। जब हम बौद्ध धर्म के संदर्भ में बात करते हैं, तो "सम्यक दृष्टि" का अर्थ है सच्ची और सही दृष्टि या दर्शन। यह धारणा बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण है जिसमें सम्यक दृष्टि को विकसित करने का प्रयास किया जाता है, जो कि आत्मज्ञान और सत्य को समझने में सहायक होता है। इससे व्यक्ति का ज्ञान, उनका आचरण, और उनके निर्णय में सटीकता और नैतिकता बढ़ती है।

बौद्ध धर्म में प्राचीन ग्रंथों और शिक्षाओं के अनुसार, पांच परिपक्ष का महत्वपूर्ण रोल होता है। ये परिपक्ष व्यक्ति को एक सही और सात्विक जीवन जीने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।

1. सम्यक दृष्टि

इसका अर्थ है सही दृष्टिकोण या सही धारणा। यह व्यक्ति को सत्य को समझने और ज्ञान को प्राप्त करने में सहायक होता है। उदाहरण के रूप में, एक व्यक्ति जो सम्यक दृष्टि रखता है, वह सत्य, कर्म, और कर्मफल के बीच अन्याय और विचारविमर्श करता है।

2. सम्यक संकल्प

यह व्यक्ति के मन में सही संकल्प और उद्देश्यों की प्रेरणा को दर्शाता है। इसमें आदर्श और नैतिकता के साथ सही कार्य करने की भावना शामिल होती है। उदाहरण के रूप में, एक सम्यक संकल्प वाला व्यक्ति अपने कर्मों में सात्विकता, उपकार, और सम्मान को बनाए रखने का उद्देश्य रखता है।

3. सम्यक वचन

यह व्यक्ति के भाषण और वाणी को सही और नैतिक रूप से उपयोग करने की क्षमता को दर्शाता है। इसमें अहिंसा, सत्य, अनुग्रह, और संयम का पालन करने की भावना होती है। उदाहरण के रूप में, सम्यक वचन वाला व्यक्ति अपने भाषण में सत्य का पालन करता है और दूसरों के प्रति आदरणीय और सहानुभूति दिखाता है।

4. सम्यक कर्मान्त

इसका मतलब है सही कर्म और आचरण करने की क्षमता। यह व्यक्ति को नैतिकता, न्याय, और सत्य के साथ आचरण में सहायक होता है। उदाहरण के रूप में, एक सम्यक कर्मान्त वाला व्यक्ति अपने कार्यों में सत्य, अहिंसा, और न्याय का पालन करता है।

5. सम्यक आजीविका

यह व्यक्ति के अर्थात्मक गतिविधियों और उपयोगिता के साथ संबंधित है, जो कि नैतिक और सही होनी चाहिए। उदाहरण के रूप में, सम्यक आजीविका वाले व्यक्ति न्यायपूर्ण और सात्विक रूप से अपने व्यवसाय या काम का चयन करता है।

इन पांच परिपक्षों के माध्यम से, बौद्ध धर्म व्यक्ति को सही जीवन मार्ग पर ले जाने में मदद करता है और उसे सात्विक और नैतिक बनाने में सहायता प्रदान करता है।

हिंसा और अहिंसा में अन्तर

बौद्ध धर्म में हिंसा और अहिंसा दो प्रमुख सिद्धांत हैं, जिन्हें उनके अनुयायियों ने अपने जीवन और समाज के लिए महत्वपूर्ण माना है। इन दोनों के प्रति बौद्ध धर्म में विशेष ध्यान दिया जाता है और यहां आपको इन दोनों के बीच अंतर और महत्व के बारे में विस्तृत जानकारी मिलेगी।

हिंसा:

  • हिंसा का अर्थ है किसी को चोट पहुंचाना, नुकसान पहुंचाना या दुख पहुंचाना।
  • बौद्ध धर्म में हिंसा को स्वीकार्य नहीं माना जाता है। इसे दुख और पीड़ा का कारण माना जाता है और समाज में इसकी स्थिति अत्यंत निराधारित होती है।
  • बौद्ध धर्म में हिंसा की प्रतिष्ठा नहीं है और अनुयायियों को धार्मिक शास्त्रों में हिंसा से बचने का संदेश दिया गया है।

अहिंसा:

  • अहिंसा का अर्थ है दूसरों के प्रति शांतिपूर्वक व्यवहार करना, उन्हें किसी भी रूप में नुकसान न पहुंचाना।
  • बौद्ध धर्म में अहिंसा को एक महत्वपूर्ण सिद्धांत माना जाता है। अहिंसा को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और इसे अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।
  • बौद्ध धर्म के अनुयायी अहिंसा के माध्यम से ही समाज में शांति और सौहार्द्र बना रह सकता है। वे हिंसा को अनुमोदन नहीं करते और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति और सम्मान का आदर्श रखते हैं।

इस प्रकार, बौद्ध धर्म में हिंसा और अहिंसा को अलग-अलग मान्यताओं और धारणाओं के साथ देखा जाता है, जो उनके शिष्यों को सद्गुणों के माध्यम से जीवन जीने का मार्ग दिखाते हैं।

क्या अत्याचार सहना अहिंसा है?

अत्याचार सहना अहिंसा के तत्वों के खिलाफ है। अहिंसा का मतलब है दूसरों के प्रति शांतिपूर्वक व्यवहार करना और उन्हें किसी भी रूप में नुकसान न पहुंचाना। अत्याचार सहना का अर्थ होता है अनावश्यक दुख या अन्याय से गुजरना, जो कि आत्महत्या और मानसिक चिकित्सा के कारक हो सकते हैं।

अहिंसा के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को अपने और अन्यों के लिए उत्तम और सही भविष्य की ओर ले जाना चाहिए। इसका मतलब है कि अत्याचार या अन्याय को सहा नहीं जानी चाहिए, बल्कि अत्याचार रोकने के लिए साहसी और सही तरीके से कार्रवाई की जानी चाहिए।

बौद्ध धर्म में भी अत्याचार के खिलाफ खुली और सक्रिय रूप से लड़ाई की गई है, और शिष्यों को न्याय और सच्चाई की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया गया है। इसलिए, अत्याचार सहना को अहिंसा के माध्यम से स्वीकार नहीं किया जाता।

पञ्चभूत

हमारी संस्कृति में प्रकृति की हर एक सजीव व निर्जीव वस्तु की उत्पत्ति के बारे में विस्तार से बताया गया हैं। सभी वस्तुएं मुख्यतया केवल 5 तत्वों से मिलकर बनी होती है व अंत में उसी में ही समा जाती है फिर वह चाहे मानव शरीर हो या किसी जानवर का या फिर कोई निर्जीव वस्तु या पेड़ पौधे यह पञ्चभूत होते हैं आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि । इन्ही पांच तत्वों से मिलकर ही हर चीज़ का निर्माण होता है व विभिन्न वस्तुओं में इनकी मात्रा भी भिन्न-भिन्न होती है। इन पांचो के मिलने से एक निर्जीव वस्तु का निर्माण होता है जिसमे प्राण नही होते है। इन्हे पंचतत्व या महाभूत भी कहते हैं।

किसी वस्तु को सजीव बनाने के लिए इसमें प्रकृति का स्वरुप का होना आवश्यक है अर्थात पञ्चभूत मिलकर एक निर्जीव वस्तु का निर्माण करते है या सरल शब्दों में कहे तो एक देह का निर्माण। जब इस देह में शक्ति का प्रवेश होता है तो इसमें जीवन आ जाता है और वह वस्तु सजीव बन जाती है। जब शक्ति उस देह को या वस्तु को त्याग देती है तब वह फिर से इन्ही पंचतत्वो में मिल जाती है।

पञ्चभूत का अर्थ पञ्चभूत में 5 तत्व आते है जिनका अलग-अलग अर्थ हैं। यहाँ पर पांचो तत्व भिन्न-भिन्न चीजों का प्रतिनिधित्व करते है। आइये जाने:

1. आकाश तत्व
आकाश का तात्पर्य अनंत से है जो हमारा शारीरिक संतुलन बनाये रखता है। इसी के द्वारा हमारे शरीर में शब्दों व वाणी का निर्माण होता है। इसका वर्ण काला रंग है। शरीर की स्थिति में इसे मस्तक नाम दिया गया है। हमारी वासना व संवेग का आधार आकाश तत्व ही है।

2. पृथ्वी तत्व
पृथ्वी का तात्पर्य हमारे शरीर की त्वचा व कोशिकाओं से है जिससे हमारे शरीर का बाहरी निर्माण होता है व जिस रूप में बाकि हमे देखते है। यह हमारे शरीर का भार भी दर्शाता है। इसका वर्ण पीला होता है। हमारे शरीर की गंध पृथ्वी तत्व से निर्धारित होती है व यह हमारे अंदर अहंकार की भी परिचारक है। शरीर में इसकी स्थिति जांघो से की जाती है।

3. जल तत्व
जल का तात्पर्य हमारे शरीर में विद्यमान हर एक दृव्य पदार्थ से है जो शीतलता को दर्शाता है। इससे हमारे शरीर में संकुचन आती है व शरीर में इसकी स्थिति पैरो से होती है। इसका वर्ण सफेद है। हमारे शरीर में किसी भी चीज़ का स्वाद जानने की शक्ति जल तत्व से ही आती है। यह हमारे अंदर बुद्धि का परिचायक है।

4. वायु तत्व
वायु हमारे शरीर में गतिशीलता की परिचायक होती है जिससे हमारे शरीर में वेग या गति का निर्माण होता है। शरीर में इसकी स्थिति नाभि से होती है व इसका वर्ण नीला या भूरा होता है। वायु की प्रकृति अनिश्चित होती है व हमारे शरीर में स्पर्श करने की शक्ति व उसकी अनुभूति वायु तत्व से ही होती है।

5. अग्नि तत्व
अग्नि का तात्पर्य हमारे शरीर की ऊर्जा से है जो हमारे शरीर को सुचारू रूप से चलाने में सहायक है। शरीर में इसकी स्थिति कंधो से है व इसका वर्ण लाल रंग होता है। शरीर की देखने की शक्ति का विकास अग्नि तत्व से ही होता है व हमारे विवेक के निर्माण में भी इसी की भूमिका होती है।

भगवान शब्द का अर्थ भी पञ्चभूत होता हैं।

हम प्रकृति को याद करने के उद्देश्य से उनका आह्वान करते है व हमारी संस्कृति में प्रकृति को भगवान नाम की संज्ञा दी गयी है जो इन्ही पंचतत्वो को दर्शाता हैं। यदि भगवान शब्द को तोड़ा जाये तो यही पंचतत्व निकल कर आते है।

भगवान: भ+ग+व+अ+न  इसमें

* भ का अर्थ भूमि से है अर्थात पृथ्वी।
* ग का अर्थ गगन अर्थात आकाश।
* व का अथ वायु से है अर्थात हवा।
* अ का अर्थ अग्नि से है अर्थात आग।
* न का अर्थ नीर से है अर्थात जल।

इसी प्रकार इन पांचो तत्वों के संगम से भगवान शब्द की रचना की गयी जो हमारे लिए पूजनीय है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी संस्कृति में भगवान के स्वरुप को हमारे निर्माण के लिए उत्तरदायी तत्वों को पूजनीय बताया गया है व उनकी सुरक्षा करने का दायित्व की महत्ता बताई गयी है। इसी के साथ इन पञ्च तत्वों के मिलने के बाद इसमें प्राण डालने वाली शक्ति को स्वयं प्रकृति का स्वरुप बताया गया है।

मानव शरीर में रोगों की उत्पत्ति

मानव शरीर में इन पञ्च तत्वों की सही व बराबर मात्रा होनी चाहिए। यदि इनमे से किसी एक की भी मात्रा ऊपर नीचे होती है या कोई एक तत्व सही से काम नहीं कर रहा होता है तब मानव शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है जिसके फलस्वरूप मनुष्य बीमार पड़ जाता है।

दाह संस्कार का महत्व
 
भारतीय समाज मे में मनुष्य की मृत्यु के बाद उसका दाह संस्कार करने की परंपरा है अर्थात प्रकृति की आज्ञा से जब शक्ति मनुष्य का शरीर छोड़ कर चली जाती है तब वह शरीर नश्वर हो जाता है। उसके बाद उसको उन्ही पांच तत्वों में वापस मिलाना होता है। इसी कारण भारतीय समाज मे मृत्यु के बाद दाह संस्कार किया जाता है जिससे मनुष्य का शरीर फिर से एक बार उन्ही पंचतत्वो में मिल जाये।

भारत में बौद्ध समाज की परिभाषा

कुछ लोग अपने आप को बौद्ध कहते हैं। आखिर बौद्ध किसे कहें? वर्तमान भारत में बौद्ध कौन है? इसके लिए सबसे पहले समाज को और बौद्ध को अलग-अलग परिभाषित करना होगा।

1. समाज किसे कहते हैं ?

उत्तर - व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। यही सरल परिभाषा है। अन्य लेखकों ने समाज को अन्य तरीकों से भी परिभाषित किया है।

2. समाज के समूह के आवश्यक अंग कौन से हैं ?

उत्तर - समाज के समूह के आवश्यक अंग समाज का दर्शन, चरित्र एवं ज्ञान है। इन तीनों का सम्यक होना आवश्यक है।

3. बौद्ध समाज किसे कहते हैं ?

उत्तर - इसको परिभाषित करना इतना आसान नही है। फिर भी सरल भाषा में बताना उचित होगा। जो समाज दर्शन, ज्ञान, चरित्र को सत्य की कसौटी पर खरा उतारें। पूर्व से लेकर वर्तमान में समता, समानता, बंधुता, व्यवस्था आज भी वैसी ही बनाये रखें जो कि पूर्व में थी। इसका साक्ष्य बुद्ध दर्शन और बोधिसत्व बाबासाहेब के सम्पूर्ण वांग्मय में लिखित है।

4. बौद्ध व्यक्ति कि धार्मिक और संवैधानिक पहचान कैसे करें ?

उत्तर - जो व्यक्ति जैन, सिख, ईसाई, पारसी, हिन्दू के अलावा ब्रह्मा समाज, सम्यक समाज, दलित समाज, शूद्र समाज, प्रार्थना समाज, चोखामेला समाज, राय समाज, मूल निवासी समाज, बहुजन समाज एवं अन्य समाज, समुदाय का सदस्य न हो। ऐसा व्यक्ति जो कि अनुसूचित जाति / जनजाति और पिछड़ा वर्ग एवं अन्य धार्मिक समुदाय का सदस्य न हो।

--- महत्वपूर्ण बिंदु ---

5. कोई भी व्यक्ति बुद्ध का नाम लेने मात्र से या उनकी शिक्षाओं का प्रचार करने मात्र से वो व्यक्ति बौद्ध नहीं हो जाता है। संविधान के आर्टिकल 25 में किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी धर्म के आचरण की स्वतंत्रता प्राप्त है, की वो किसी भी धर्म का आचरण कर सकता है। ये उसकी स्वतन्त्रता है। लेकिन कोई व्यक्ति अगर मस्जिद में जाता, गुरुद्वारे में जाता है, मंदिर में जाता है, बुद्ध विहारों में जाता है, तब उस व्यक्ति की धार्मिक पहचान कैसे कर सकते हो? और भारत का संविधान उस व्यक्ति की पहचान कैसे करेगा? क्योंकि वो आर्टिकल 25 की स्वतंत्रता के अनुसार सब जगह जाता है। अब उसकी धार्मिक और कानूनी पहचान संविधान किस आधार पर करेगा?

6. व्यक्ति एक धर्म से दूसरे धर्म मे जाना चाहता है,तब वो अपनी पहचान कैसे स्थापित करेगा,और उसके लिए संविधान के अनुसार उसकी क्या प्रक्रिया है ?

1. अगर कोई व्यक्ति ईसाई है वो मुस्लिम बनना चाहता है, कैसे बनेगा ?

2. अगर कोई व्यक्ति मुस्लिम है,वो सिक्ख बनना चाहता है, वो कैसे बनेगा ?

3. अगर कोई व्यक्ति सिक्ख है, वो जैन बनना चाहता है,कैसे बनेगा ?

4. अगर कोई जैन है, वो सिक्ख बनना चाहता है,कैसे बनेगा ?

5. अगर कोई व्यक्ति हिन्दू है, वो सिक्ख, जैन, पारसी, ईसाई, मुस्लिम बनना चाहता है, कैसे बनेगा ?

इस पर क्या कानूनी प्रक्रिया है ?

अगर इन सबके लिए कानूनी प्रक्रिया है तब वो बौद्धो के लिए भी होगी। जब बात बौद्धो की होती है, तब कानूनी प्रक्रिया से वो परहेज करके आचरण पर क्यों चले जाते है,क्योंकि आचरण तो अन्य धर्मो में भी होते है,लेकिन आचरण की स्वतंत्रता मिलने मात्र से और करने मात्र से क्या कानूनी पहचान हो जाती है ?

7. जब एक बात बौद्ध धर्म के सन्दर्भ में कहीं जाती है, की बौद्ध धर्म मे जातियां नहीं होती है, तब बौद्ध धर्म की बात करने वाले सिर्फ बौद्ध और बौद्ध समाज की बात न करके बौद्ध धर्म मे अपने अनुसार कौनसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते है।

8. बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं की बात करते है,तो बाबा साहेब ने 22 प्रतिज्ञा किस सन्दर्भ में रखी, ताकि पूर्व की व्यवस्था के साथ, और पूर्वग्राह से ग्रसित होकर कोई भी बौद्ध धर्म को स्वीकार करेगा तो वो बौद्ध धर्म मे वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास करेगा, और बाबा साहेब ने स्प्ष्ट कहा है की बौद्ध धर्म को वर्णाश्रम की बेड़ियों से मुक्त रखना है। बौद्ध धर्म मे किसी प्रकार का आडम्बर और पाखण्डवाद नहीं है, और ये 22 प्रतिज्ञा बौद्ध धर्म मे पाखण्डवाद को रोकने का कार्य करती है। इसीलिए बौद्ध धर्म की बात करने वाले लोग आचरण की बात तो करते है, लेकिन उन 22 प्रतिज्ञाओं को नजरअंदाज करने का प्रयास करने का कार्य करते है।

--- विशेष सार ---

बौद्ध समाज की पहचान और बौद्ध समाज की विशेषता डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर जी ने स्प्ष्ट की हुई है,और बौद्ध समाज के निर्माण की बुनियाद बाबा साहेब की ऐतिहासिक धम्म दीक्षा जो 14 अक्टूबर 1956 को हुई जहां बाबा साहेब ने उपासकों को संगठित करने के लिए बौद्ध धम्म में उपासकों के लिए एक परिवर्तन करके दीक्षा विधि का आरंभ किया और और उसी प्रक्रिया के अनुसार उन्हें आगे बढ़ते हुए अपने नामन्तर और धर्मान्तर की प्रक्रिया को पूरा करना होगा,जो बाबा साहेब ने अपने भाषण मुक्ति 'कौन पथे' में स्प्ष्ट किया हुआ है। बौद्ध समाज की अवधारणा पर अगर कार्य किया होता तो जो विशेषता बाबा साहेब ने बताई उस दिशा की बात करते और बौद्ध समाज का निर्माण आज भारत में मजबूती से पूरा हो चुका होता,बुद्ध और उनके धम्म में बौद्ध धम्म के पतन का कारण और बौद्ध समाज की विशेषता जब बाबा साहेब ने स्पष्ट कर दी है तब बौद्ध समाज निर्माण का कोई भी व्यक्ति उसका श्रेय नहीं ले सकता क्योंकि उसका श्रेय बोधिसत्व डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर जी को ही जाता है । हमे तो जो बाबा साहेब ने कारंवा स्थापित किया उसे आगे बढ़ाने का कार्य करना है, जिसके लिए त्याग की आवश्यकता है, समर्पण की आवश्यकता है, श्रेय लेने की नहीं । आज बौद्ध समाज की बुनियादी नींव उसी पर टिकी हुई है,जो बाबा साहेब ने बुद्ध और उनके धम्म में स्प्ष्ट दी हुई है।

लेखक - आर एल बौद्ध, राजस्थान

अशोक महान का जीवन

अशोक का जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में पाटलिपुत्र, पटना में माना जाता है। यह प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार के पुत्र थे। बौद्ध धर्म के इतिहास में गौतम बुद्ध के बाद सम्राट अशोक का स्थान आता है। सम्राट अशोक ने 269 ईसा पूर्व में शासक बने। उन्होंने लगभग 36 वर्ष तक शासन किया।

सम्राट अशोक ने अपने राज्य के 8 वें वर्ष में कलिंग पर आक्रमण किया था। आंतरिक अशांति से निपटने के बाद 269 ईसा पूर्व में उनका विधिवत राज्याभिषेक किया गया। तेहरवें में शिलालेख के अनुसार कलिंग के युद्ध में 150000 व्यक्ति बंदी बनाकर निर्वाचित कर दिए गए और 100000 लोगों की हत्या कर दी गई। अशोक सम्राट ने इस नरसंहार को अपनी आंखों से देखा। इससे द्रवित होकर सम्राट अशोक ने शांति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया। कलिंग युद्ध से सम्राट अशोक के मन में कई बड़े परिवर्तन हुए, और उनका मन मानवता के प्रति दया और करुणा से भर गया। उन्होंने युद्ध क्रियाओं के लिए बंद करने की प्रतिज्ञा ली। यहां से अध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उन्होंने महान बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।

अशोक को अपने शासन के 14 वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। इसके बाद मोगली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूरी तरह बौद्ध हो गए थे। सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षा देने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु को दिया जाता है। सम्राट अशोक अपने शासनकाल के 10 में शासक थे, जिन्होंने सबसे पहले बोधगया की यात्रा की थी। इसके उपरांत अपने राज्य अभिषेक के बीसवें वर्ष में उन्होंने लुंबिनी की यात्रा की थी, तथा लुंबिनी को करमुक्त घोषित कर दिया था।

अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता मोगली पुत्र निस्स ने की थी यहां अभिधम्मपिटककी रचना भी हुई, और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गए। जिनमें अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे जिन्हें श्रीलंका भेजा गया।

अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद सम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण में लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई साधन अपनाएं।

1. धर्म यात्राओं का प्रारंभ
2. राजकीयपदाधिकारियों की नियुक्ति
3. धर्म महापात्रो की नियुक्ति
4. दिव्य रूपों का प्रदर्शन
5. धर्म श्रावण एवं धर्म उपदेश की व्यवस्था
6. लोकचारिता के कार्य
7. धर्म लिपियों को खुदवाना
8. विदेशों में धर्म प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को भेजना आदि।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म यात्राओं का सहारा लिया। अभिषेक के 10 वे वर्ष में बोधगया की यात्रा पर गए। सम्राट अशोक को देवानमप्रिय और प्रियदर्शी के नाम से जाना जाने लगा।

चक्रवर्ती सम्राट द्वारा स्थापित किए गए कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें अशोक ने चट्टानों, सतम्भो, गुफाओं की दीवारों में अपने 269 ईसा पूर्व से 231 ईसा पूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। यह आधुनिक बांग्लादेश, भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में कई जगह पर मिलती है और बौद्ध धर्म के अस्तित्व की सबसे प्राचीन प्रमाणों से में से है।

अशोक ने लगभग 36 वर्षों तक शासन किया जिसके बाद लगभग 232 ई. पूर्व में उकी मृत्यु हो गई।